Thursday, November 08, 2012

शायद वो दिन ही अच्छे थे ...


पाण्डेय जी 
आज हाथ में जब आपकी नीली टाई थामी 
आपकी याद कतरा बन कर आँखों में उतर आई 

अबे चुनवा थोडा ठीक से पढाई कर ले ....आदमी बन जायेगा "

कितनी उम्मीद थी आपकी उस सलाह में 
और कितना संय्यम आप की कोशिश में 
जब आप मेरे जैसे अक्खड़ को शेक्सपियर पढ़ते थे 
मैं आपके संवादों में मार्क अन्थोनी खोजता था 
और आप मेरे प्रयासों में कीट्स 

कितनी बेमेल जोड़ी थी हमारी उमीदों की 
आप कभी हार नहीं मानते थे 
और मैं कभी भी आपका कहा 

आज भी 
जब चाय के गिलास में आंखरी  " घुटुक " बचता है 
तो आप की याद  ही जाती है 
और उस मिठास की आस में 
जो आपकी बची हुई चाय पीने से मिलती थी 
मैं वो " घुटुक " पीना नहीं भूलता 


पाण्डेय जी 
जब से आप गए हो 
मेरा गुल्लक खाली हो गया है 
जिसे आपकी  "चुंगी " ने कभी खाली नहीं होने दिया 
अब भी उम्मीद बाँकी है 
कहीं 
की शायद आप कहोगे ले चुनवा रखले 
तेरे काम आएंगे 
और मैं नहीं नहीं करते हुए हाथ बड़ा ही दूंगा 

पाण्डेय जी 
ये आपके ही आशीर्वाद का असर है 
कि घिसते घिसते ही सही "चुनवा  इंसानबन ही गया 
मगर अब आप नहीं हो 
तो लगता है 
कि ऐसी "इंसानियतसे भी क्या फायदा 
शायद वो दिन ही अच्छे थे 
जब आप थे 
और मुझे इंसान बनना चाहते थे 



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